Sunday, September 7, 2014

काश तुम समझ पाती में क्या सोचता हु ||


मन को अगर मेरे पढती , समझती जरा
सेहमे उस दिल को संभालती जरा 
खुद्के के खयालोसे बाहर आकर तराशती जरा 
तो तुम समझ पाती के में क्या सोचता हु ||

पानी के बहाव को हाथो में समेटती तुम
दो घुट मुझे भी पिलाती जरा 
बंद आंखोसे दिलमे उतरते पानी को गर सेह्जती तुम 
तो तुम समझ पाती के में क्या सोचता हु ||

अपनी दुनिया में ही गुम हो कही
तलाशती मेरी आंखे तुम्हे दरबदर कही
समझ पाती गर आखोंकी चरमराहट तुम
तो तुम समझ पाती के में क्या सोचता हु ||

तुम्हारी परछाईमें खोई परछाई मेरी 
ख़ुशी से उलझी तुम में किस्मत ये मेरी 
उलझी परछाई कि तरहा, गर दिलोकी किस्मत भी उलझी होती 
तो तुम समझ पाती के में क्या सोचता हु ||

-- सागर 

3 comments:

  1. Awesome.. So pure emotions & true feelings which directly connects with heart.. Excellent..

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  2. Thanks Samidha, glad u liked it.

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